वक़्त बे वक़्त याद उसे करते रहे हिज्र की लो मैं ख़ुद को पिगलाते रहे ना मंज़िल-ए-ख़्वाब मालूम हमे…
ज़िंदगी के इस सफ़र में चैन लौट के आ रहा है आँखों में फिर से नींद का जोख़ा आ रहा…
उनके दर के दरवेश बने रहे हम इस भूल में वो हमे ख़ुद से भी ज़ायदा चाहेंगे इस भूल में…
ना जाने कौन से उज़्र लगाते थे अंजानों से असली चेहरा छिपा कर रखते थे अंजानों से क़तार ऐसे ही…
एक गुनहा फिर से करना है शहर-ए-इश्क़ में फिर से घूमना है आख़िर कही से तो हमे सकून मिलेगा टूटे…